भेडिये घूम रहे हैं
गोश्त की तलाश में,
यहाँ-वहाँ चारों तरफ
निगाहें बहुत पैनी हैं इनकी
ओढ रखी है सामाजिकता की चादर
पहचानना भी है मुश्किल.
जहाँ दिखती है
थोडी सी झिर्री ,सुराख,
कोई खुली खिडकी
ताजी हवा की खातिर
घुस जाना चाहते हैं भेडिये
तोड कर बेशर्मी की हदें,
और बतलाते हैं खुद को सफेदपोश.
आधुनिकता के नुमाइन्दे
दकियानूसी करार देते हैं ये
प्रेम बंधन,नैतिकता,विश्वास को
नंगी सभ्यता के ये नंगे पैरोकार
लिपटे रहते हैं देर तक छलावे के लिबास में.
@ kanchan
"जहाँ दिखती है / थोडी सी झिर्री ,सुराख,/ कोई खुली खिडकी /ताजी हवा की खातिर / घुस जाना चाहते हैं भेडिये / तोड कर बेशर्मी की हदें,
ReplyDeleteऔर बतलाते हैं खुद को सफेदपोश." कविता (साहित्य) इन्हीं भेड़ियों की पहचान में मदद करता है, इनसे सतर्क रहने की सलाह देता है और संघर्षशील लोगों का मनोबल बनाए रखता है। इस अच्छी कविता के लिए शुभकामनाएं, कंचन।
बहुत खूब | विचारणीय रचना |
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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