माँ
चुनती है चावल
साथ में
बुनती है विचार ,
आज फिर बहुत काम है ,
बिटिया के स्कूल जाना है ,
घर का राशन लाना है ,
साथ ही
सींझ्ना है समय को अपने भीतर ।
माँ चूल्हे पर रख देती है
बटुली और तैयार हो जाता है चावल ,
फिर ख्याल के झरोखे खुलने लगते हैं ,
दर्द भी कुलबुलाने लगता है ,
तन्हाईयों के बीच
गुजर जायेगा एक और दिन
कैसे?कंधे पर सलीब रख कर
जीना होता है
देर तक समय के साथ
गुफ्तगू करते हुए ।
माँ और तनहाई का रिश्ता
अटूट है ,
माँ चावल से बतियाती है
और फिर खुद ही
एक पलटता हुआ पन्ना बन जाती है
किसी डायरी का
जिसमे रखे होते है
तनहाईयों के दस्तावेज
कुछ मासूम से लम्हे
बचपन के भी
जिनसे माँ खेलती है .
कुछ यादें प्रेम की
जिन्हें माँ कभी-कभी
ओढ़ लेती है सावन में ।
और फिर माँ
तनहाईयों को समेटते हुए
रात्र के लिहाफ में घुस जाती है
सुबह होने तक ।
माँ देर तक समय को जीती है ।
@कंचन
वाह कंचन, बच्चे के विकास में मां की भूमिका और उसके मन को आपने इस कविता में बहुत मनोयोग से बुना है। सहज सरल भाषा में अच्छी संवेदनात्मक व्यंजना इस कविता को एक आत्मीय लहजा प्रदान करती है। बधाई।
ReplyDeleteमाँ और तनहाई का रिश्ता
ReplyDeleteअटूट है ,
माँ चावल से बतियाती है
और फिर खुद ही
एक पलटता हुआ पन्ना बन जाती है
किसी डायरी का .......
.....बहुत प्यारी कविता है कंचन. माँ होने के गौरव और संघर्षों का बोध कराती हुई.