Sunday 20 May 2012

Kanchan Neeraj: कवि होना क्या है.

Kanchan Neeraj: कवि होना क्या है.: एक बार अमेरिकी कवि कार्ल सैंडबर्ग से किसी ने पूछा कि आप लिखते कैसे हैं. कवि महोदय ने इसका बहुत मजेदार उत्तर दिया. उसने कहा-मैं बहुत बडे घर ...

कवि होना क्या है.

एक बार अमेरिकी कवि कार्ल सैंडबर्ग से किसी ने पूछा कि आप लिखते कैसे हैं. कवि महोदय ने इसका बहुत मजेदार उत्तर दिया. उसने कहा-मैं बहुत बडे घर में रहता था.मुझे बहुत अकेलापन लगता था.एक दिन मैने अपने आप से कहा-अगर मैं लेखक बन जाऊँ तो मेरा अकेलापन थोडा कम हो जायेगा .मैं घर से बाहर निकला.मुझे बहुत सारी क्रियाएं मिलीं.मैं इन क्रियाओं के साथ घर वापस आ गया.ये क्रियाएं बहुत अकेली लग रही थीं मुझे पता था कि इन्हें जोडने के लिए संज्ञाओं की जरू्रत है .इसलिए मैं फिर घर से बाहर गया और बहुत सारी संज्ञाओं  के  साथ वापस आया.संज्ञाओं और क्रियाओं को जोड  कर मैने कुछ वाक्य बनाये और कहा ,मुझे पता है कि मुझे क्या चाहिये,थोडे से  विशेषण ,बहुत सारे नही ,थोडे से .मैं नीचे तहखाने में गया.एक कोने मे  मुझे विशेषणों से भरा पीपा मिला.वे इतने अधिक थे कि जीवन भर को काफी थे.मैं फिर ऊपर आयाऔर लिखने लगा.तब से लगातार लिख रहा हूँ.
       लिखना अकेलापन दूर करने का उपाय है.रचनाकार होने के लिये अकेला होना  जरू्री है सिर्फ अकेला नहीं भीड मे अकेला. यह जीवन और समाज विलोमों और विरोधी तत्वों से मिल कर बना है .भीड के  बिना कोई अकेला नही होता.भीड को ,समाज को समझने के लिये थोडा दूर जाना होगा.मनुष्य और कविता में फर्क कहाँ है.रचना अपने रचयिता से अलग नहीं है.दोनों एक हैं ,दोनों अलग भी हैं.
        अकेलेपन से मुक्ति पानी है तो रचो .अकेले का  विलोम है रचना-अर्थात कविता. लेखक के लिये रचना ही मुक्ति है.यदि कुछ रचना  है  तो घर से बाहर  निकलना होगा.जितना बाहर जाना जरू्री है,उतना ही अन्दर जाना भी.बाहर और अन्दर की यह यात्रा मनुष्य को रचनात्मक बनाती है.
       -कन्चन

Monday 14 May 2012

Kanchan Neeraj: भेडिये

Kanchan Neeraj: भेडिये: भेडिये घूम रहे हैं गोश्त की तलाश में, यहाँ-वहाँ चारों तरफ निगाहें बहुत पैनी हैं इनकी ओढ रखी है सामाजिकता की चादर  पहचानना भी है ...

भेडिये

भेडिये घूम रहे हैं
गोश्त की तलाश में,
यहाँ-वहाँ चारों तरफ
निगाहें बहुत पैनी हैं इनकी
ओढ रखी है सामाजिकता की चादर 
पहचानना भी है मुश्किल.

जहाँ दिखती है
थोडी सी झिर्री ,सुराख,
कोई खुली खिडकी
ताजी हवा की खातिर
घुस जाना चाहते हैं भेडिये
तोड कर बेशर्मी की हदें,
और बतलाते हैं खुद को सफेदपोश.
  
आधुनिकता  के नुमाइन्दे
दकियानूसी करार देते हैं ये
प्रेम बंधन,नैतिकता,विश्वास को
नंगी सभ्यता के ये नंगे पैरोकार 
लिपटे रहते हैं  देर तक छलावे के लिबास में.
@ kanchan         

Tuesday 1 May 2012

Kanchan Neeraj: मां और तन्हाई

Kanchan Neeraj: मां और तन्हाई: माँ  चुनती है चावल  साथ    में  बुनती है विचार , आज फिर बहुत काम  है , बिटिया के स्कूल जाना है , घर का राशन लाना है , साथ ही...

मां और तन्हाई

माँ 
चुनती है चावल 
साथ    में 
बुनती है विचार ,
आज फिर बहुत काम  है ,
बिटिया के स्कूल जाना है ,
घर का राशन लाना है ,
साथ ही 
सींझ्ना है समय को अपने भीतर ।

माँ चूल्हे  पर  रख  देती है 
बटुली  और तैयार हो जाता है चावल ,
फिर  ख्याल के झरोखे खुलने लगते हैं ,
दर्द भी कुलबुलाने लगता है ,
तन्हाईयों के बीच 
गुजर जायेगा एक और दिन 
कैसे?कंधे पर सलीब रख  कर
जीना होता है 
देर तक  समय के साथ 
गुफ्तगू  करते हुए ।

माँ और तनहाई  का रिश्ता 
अटूट है ,
माँ चावल  से बतियाती है  
  और फिर खुद  ही 
 एक पलटता  हुआ पन्ना  बन  जाती है 
 किसी डायरी  का  
जिसमे रखे  होते है 
तनहाईयों  के दस्तावेज
कुछ मासूम से  लम्हे 
 बचपन के भी 
जिनसे माँ खेलती है .
कुछ यादें प्रेम की 
जिन्हें  माँ  कभी-कभी 
ओढ़  लेती है सावन में ।

और फिर  माँ 
तनहाईयों  को समेटते हुए 
रात्र के लिहाफ में घुस जाती है 
सुबह होने तक ।
 माँ देर तक समय को जीती है ।

    @कंचन  

Tuesday 17 April 2012

Kanchan Neeraj: दो मौसम

Kanchan Neeraj: दो मौसम: देखा दरख़्त की छाँव में ,   दो मौसमों  को एक  साथ  बैठे हुए , एक बासंती दूसरा शरद . दूरियां मौसमी थीं  जिन्हें दिलों ने नही स्वीकारा और साथ ह...

दो मौसम

देखा दरख़्त की छाँव में , 
 दो मौसमों  को एक  साथ  बैठे हुए ,
एक बासंती दूसरा शरद .
दूरियां मौसमी थीं 
जिन्हें दिलों ने नही स्वीकारा
और साथ हो लिए .
मिट गयी दूरियां जब 
साझा  हो गये सारे ख्वाब 
पेड़ की छाँव तले
कुछ कसमे कुछ वादे हुए .
और फिर मौसम बदला 
बासंती  लौट गयी अपने घर 
जो कहीं दूर पहाड़ों पर था ,
जहाँ जाना कठिन था ,
रास्ता दुर्गम था ,
कंटीली झाड़ियाँ थीं ,
चट्टानें थीं  और कुछ निगाहे थीं 
जो आग उगलती थीं .
प्रेम जिनके लिए वर्जित था 
और  मैदानी विजातीय थे .
बड़ा अहम होता है 
प्रेम से भी ज्यादा अहम ,
कुछ जलते हुए सवाल .
दब कर रह जाती हैं सिसकियाँ 
घुटी रह जाती है आवाज 
पहाड़ों में गूंजती है विरह की तानें 
चट्टानें और भी सख्त हो जाती हैं .
कंटीली झाड़ियों पर पीले रंग के फूल नही खिलते हैं ,
जिनमे होती है खुशबु और पराग .
शरद अड़ जाता है चट्टानों के आगे ,
पर चट्टान पिघलते नहीं हैं ,
मौसम की तरह वे बदलते नहीं हैं .
सख्त जीवन, जीवन से भी सख्त उसूल ,
उसूलों के लिए मिटा दिए  जाते हैं 
प्यार के फूल .
किसी दरख्त पर  लटका दिया जाता है 
दो मौसमों को 
और सुना दिया जाता है  फरमान  ,
प्रेम वर्जित है , 
चट्टानों के रंग  एक से होते हैं ,
केवल स्याह .
ख्वाब चिंदी-चिंदी हो कर 
पहाड़ी हवाओं में गुम हो जाते हैं .    
 @कंचन      

Thursday 12 April 2012

Kanchan Neeraj: tumhare bin

Kanchan Neeraj: tumhare bin:  तुम शब्द हो ,  जो मेरे  भावों  को व्यक्त करते हो   तुम्हारे बिन   मैं अव्यक्त रह जाती हूँ .  तुम सुगंध हो  जो बसती  है मेरी देह में जगाती ह...

tumhare bin

 तुम शब्द हो ,
 जो मेरे  भावों  को व्यक्त करते हो 
 तुम्हारे बिन 
 मैं अव्यक्त रह जाती हूँ .
 तुम सुगंध हो 
जो बसती  है मेरी देह में
जगाती है तृष्णा 
तुम्हारे बिन 
मै रसहीन हो जाती हूँ.
तुम रंग हो मेरे जीवन में 
फूलों की तरह ,भांति -भांति के, 
तुम्हारे बिन मैं 
रंगहीन हो जाती हूँ .
मेरे प्रिय ,
तुम श्वांस हो मेरी ,
तुम्हारे बिन 
मैं निर्जीव हो जाती हूँ .
   @kanchan

Thursday 5 April 2012

Kanchan Neeraj: tumhara hona

Kanchan Neeraj: tumhara hona: तुम्हारा होना  एक जीवित एहसास , तुम्हारा ना होना  एहसासों का गुम हो जाना  बीहड़ो में , या फिर रेत के बवंडर में , फिर दूर तक सन्नाटा होता है ...

Kanchan Neeraj: tumhara hona

Kanchan Neeraj: tumhara hona: तुम्हारा होना  एक जीवित एहसास , तुम्हारा ना होना  एहसासों का गुम हो जाना  बीहड़ो में , या फिर रेत के बवंडर में , फिर दूर तक सन्नाटा होता है ...

tumhara hona

तुम्हारा होना 
एक जीवित एहसास ,
तुम्हारा ना होना 
एहसासों का गुम हो जाना 
बीहड़ो में ,
या फिर रेत के बवंडर में ,
फिर दूर तक सन्नाटा होता है ।
नही ....
शोर होता है ,
यादों का बीहड़ शोर 
जो परे चल जाता है 
एहसासों के ।
और  यादें 
दर्द में तब्दील हो जाती हैं ।
     कंचन @ 

Kanchan Neeraj: entjar prem ka vistar hai.

Kanchan Neeraj: entjar prem ka vistar hai.: मै दो अंशो में विभक्त हो गयी हू  एक अंश सजीव सा  मेरे समीप है । दूसरा हवाओ  में  कहीं गुम गया है  और हवाएं मुझे जला रही हैं।   मैं विस्मित ह...

entjar prem ka vistar hai.

मै दो अंशो में विभक्त हो गयी हू
 एक अंश सजीव सा 
मेरे समीप है ।
दूसरा हवाओ  में 
कहीं गुम गया है 
और हवाएं मुझे जला रही हैं।
  मैं विस्मित हूँ 
सम्पूर्ण होते हुए भी अपूर्ण हूँ 
फटी हुयी  सी  
दर्द बन कर टीस रही हैं यादें 
और इंतजार उदास दुपहरिया सी 
पसरी  हुयी है आँगन में ।
प्रेम दो दिलों को जोड़ देता है 
ऐसे जैसे रात दिन से जुडी है ,
फ़ूल शाख से जुडी है ,
वर्षा बादल से जुडी है ,
नदिया जल से जुडी है ।
यादें प्रेम का अंतर्नाद है ,
विछोह प्रेम का विलाप है ,
इंतजार प्रेम का विस्तार है ।
मैं प्रेम को जी रही हूँ ।
कंचन @  

Monday 12 March 2012

Kanchan Neeraj: vivshta

Kanchan Neeraj: vivshta:  किसने तय कर दिए दायरे    बना दिए मानक  घेर दिया एक गोल घेरा  बिना कोनो का  लुढ़कती रहती है इच्छाएं  इसी में इधर-उधर ,गोल- गोल । क्या वजह रह...

Kanchan Neeraj: vivshta

Kanchan Neeraj: vivshta:  किसने तय कर दिए दायरे    बना दिए मानक  घेर दिया एक गोल घेरा  बिना कोनो का  लुढ़कती रहती है इच्छाएं  इसी में इधर-उधर ,गोल- गोल । क्या वजह रह...

vivshta

 किसने तय कर दिए दायरे 
  बना दिए मानक 
घेर दिया एक गोल घेरा 
बिना कोनो का 
लुढ़कती रहती है इच्छाएं 
इसी में इधर-उधर ,गोल- गोल ।
क्या वजह रही होगी 
मिट तो सकती थी लकीरे 
फिर क्यों फेर लिया गया चेहरा ,
क्या है रहस्य 
क्या स्वीकार्यता संभावनाओं का अंत नही कर देती 
विवशता 
इतनी प्रबल नही होती ।
की हाथ पर हाथ धरे बैठ जाया जाये 
और चुप्पी साध ली जाये ,
सारी संभावनाओ के खिलाफ
गर्दन तक खिंच कर रेशमी लिहाफ 
भुला   दिया जाये
आजादी की गंध को
और एडियाँ घिसते बिता दी जाये 
सोने के पिंजरे में कैद  हो कर सारी जिन्दगी ।         
@कंचन             

Tuesday 6 March 2012

kvita

 कविता 
 केवल सुखों का दस्तावेज नही है 
 कुछ दुःख भी है इनमे 
 सुख के साथ 
 सारे रंग होते है यहाँ 
 अपने-अपने रंग के साथ ।
कुछ स्याह-सुनहरी यादें 
कुछ काले-उजले पल 
हर वो क्षण  वो भाव जिनमे 

जीता है मानव    
 मरता भी है ।क्यूँ की जीवन शाश्वत है 
सुख-दुःख भी शाश्वत है ।
 गुथें है एक ही धागे में 
कुछ आगे कुछ पीछे 
कुछ नन्हे  कुछ बड़े 
पर सब अपनेपन के साथ है 
अपनी जगह घेरे हुए 
कम या तो ज्यादा ।
   @kanchan

prem ki kvitayen

  मै देर तक लिखती रहूंगी
  प्रेम की कविताएँ
  क्यूँ की प्रेम
  कहीं भिन जाता है
  रगों में और एकाकार हो जाती है
  दो धुर विरोधी आत्माएं ,
  एक नर-एक मादा।
  जब प्रेम सीन्झता है
  आत्मा तक
  फिर निराकार हो जाते है
  सारे अंतर्विरोध और
एक अनोखा संगीत पैदा होता  है

    साझेदारी का ।
प्रेम व्याप्त है जड़ -चेतन जगत में
जैसे धड़कन जीवन में
इसीलिए
प्रेम की कविताएँ
मै देर तक रचती रहूंगी ।
  @कंचन 

Monday 30 January 2012

nari albeli

सरसों के खेतों बीच खड़ी
वह नारी अलबेली 
पहने नीली- नीली साडी 
चहुँ  ओर दिखे है हरियाली
 
 पीले- पीले फूल खिले 
मतवाली पवन चले 
लहराता नीला आँचल 
झक नीले आकाश तले
दूर खड़े तरु देखे  कौन ?
यह नारी अलबेली मौन 
मंद-मंद मुस्काती है 
सरसों के फूल खिलाती है ।
     @kanchan

aadha aakash

विशाल समन्दर है 
और
सुर्ख लाल आकाश 
दूर कहीं से मौन 
चला आ रहा कोई जहाज 
सूर्य के सम्मुख खड़ा है 
डूबता सूरज 
आधा आकाश आधा समन्दर में 
बह रहा है ।
लौटते  पंछी  घरों को मचा रहे  कलरव 
दे रहा संकेत सांझ 
निशा के आगमन का ।
  @kanchan