देखा दरख़्त की छाँव में ,
दो मौसमों को एक साथ बैठे हुए ,
एक बासंती दूसरा शरद .
दूरियां मौसमी थीं
जिन्हें दिलों ने नही स्वीकारा
और साथ हो लिए .
मिट गयी दूरियां जब
साझा हो गये सारे ख्वाब
पेड़ की छाँव तले
कुछ कसमे कुछ वादे हुए .
और फिर मौसम बदला
बासंती लौट गयी अपने घर
जो कहीं दूर पहाड़ों पर था ,
जहाँ जाना कठिन था ,
रास्ता दुर्गम था ,
कंटीली झाड़ियाँ थीं ,
चट्टानें थीं और कुछ निगाहे थीं
जो आग उगलती थीं .
प्रेम जिनके लिए वर्जित था
और मैदानी विजातीय थे .
बड़ा अहम होता है
प्रेम से भी ज्यादा अहम ,
कुछ जलते हुए सवाल .
दब कर रह जाती हैं सिसकियाँ
घुटी रह जाती है आवाज
पहाड़ों में गूंजती है विरह की तानें
चट्टानें और भी सख्त हो जाती हैं .
कंटीली झाड़ियों पर पीले रंग के फूल नही खिलते हैं ,
जिनमे होती है खुशबु और पराग .
शरद अड़ जाता है चट्टानों के आगे ,
पर चट्टान पिघलते नहीं हैं ,
मौसम की तरह वे बदलते नहीं हैं .
सख्त जीवन, जीवन से भी सख्त उसूल ,
उसूलों के लिए मिटा दिए जाते हैं
प्यार के फूल .
किसी दरख्त पर लटका दिया जाता है
दो मौसमों को
और सुना दिया जाता है फरमान ,
प्रेम वर्जित है ,
चट्टानों के रंग एक से होते हैं ,
केवल स्याह .
ख्वाब चिंदी-चिंदी हो कर
पहाड़ी हवाओं में गुम हो जाते हैं .
@कंचन
wahh !! bahut hi madhur ehsaas karati ye rachana... "Do Mausam"
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