Monday, March 12, 2012

vivshta

 किसने तय कर दिए दायरे 
  बना दिए मानक 
घेर दिया एक गोल घेरा 
बिना कोनो का 
लुढ़कती रहती है इच्छाएं 
इसी में इधर-उधर ,गोल- गोल ।
क्या वजह रही होगी 
मिट तो सकती थी लकीरे 
फिर क्यों फेर लिया गया चेहरा ,
क्या है रहस्य 
क्या स्वीकार्यता संभावनाओं का अंत नही कर देती 
विवशता 
इतनी प्रबल नही होती ।
की हाथ पर हाथ धरे बैठ जाया जाये 
और चुप्पी साध ली जाये ,
सारी संभावनाओ के खिलाफ
गर्दन तक खिंच कर रेशमी लिहाफ 
भुला   दिया जाये
आजादी की गंध को
और एडियाँ घिसते बिता दी जाये 
सोने के पिंजरे में कैद  हो कर सारी जिन्दगी ।         
@कंचन             

4 comments:

  1. किसने तय कर दिए दायरे
    बना दिए मानक
    घेर दिया एक गोल घेरा
    बिना कोनो का

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  2. बिलकुल जायज़ सवाल, बढ़िया कविता!
    आभार

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