संवाद अर्थहीन,बेमानी
रिश्तों की तरह
होते है,
ढोते है शब्दों की लाश
अपने ही कंधो पर
आती है सड़ांध
और
उतार कर फेंक देना
फिर भी आसान नही होता
लाश को
चलना पड़ता है तपती दुपहरी में
दूर तक
छाँव की तलाश में,
छाँव , बेमानी
छाले पड़े है
दिल -पाँव में
दूभर है जीना ,
मरना और भी |
- @कंचन